बुधवार, 28 फ़रवरी 2007

जो है सो है!

रूमी की एकमात्र गद्य में लिखी रचना फ़ीही मा फ़ीही (जो है सो है), रूमी के अपने शिष्यों के साथ बैठ कर किये विचारविमर्श का संकलन है.. ऐसे आध्यात्मिक वार्तालाप मौसिकी शायरी और समा की महफ़िलों के बाद शक्ल लेते थे। आम तौर पर दुर्लभ इस किताब को १९६१ में ए. जे. आर्बेरी ने अंग्रेज़ी में अनूदित किया है, उसी अनुवाद से मैं इसे हिन्दी में रूपान्तरित कर रहा हूँ। किताब में कुल इकहत्तर वार्तालाप हैं । यह दूसरे वार्तालाप का अनुवाद है। बीच बीच मे उद्धरण चिह्नो के बीच क़ुरान की आयतों का उल्लेख है।

किसी ने कहा: "हमारे मुर्शिद एक लफ़्ज़ भी नहीं बोलते"।
रुमी ने जवाब दिया: मगर जो तुम्हे मुझ तक ले कर आया वो मेरा खयाल था और उस खयाल ने भी तो तुम से नहीं बोला कि भई खैरियत से तो हो? बिना लफ़्ज़ों के खयाल तुम्हे यहाँ खींच लाया। मेरी हक़ीक़त तुम्हे बिना लफ़्ज़ों के खींचती है और एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है तो क्या धरा है लफ़्ज़ों में? लफ़्ज़ तो हक़ीक़त की परछाई भर हैं, हक़ीक़त की महज एक शाख। जब परछाई खींच सकती है तो हक़ीक़त कितना खींचेगी!

लफ़्ज़ सिर्फ़ बहाना हैं। असल में ये अन्दर का बंधन है जो एक शख्स को दूसरे से जोड़ता है, लफ़्ज़ नहीं। कोई लाखों करिश्मे और खुदाई रहमतें भी क्यों न देख ले अगर उस फ़क़ीर या पैग़म्बर के साथ कोई तार नहीं जुड़ा है तो करिश्मों से कोई फ़रक नहीं पड़ने वाला। ये जो अन्दर का तत्व है यही खींचता और चलाता है...अगर लकड़ी में पहले से ही आग का तत्व मौजूद नहीं है तो आप कितना भी दियासलाई लगाते रहिये.. वो नहीं जलेगी। लकड़ी और आग का सम्बंध गुप्त है, आँख से नहीं दिखता।

ये खयाल है जो हमे ले जाता है। बग़ीचे का खयाल हमे बग़ीचे मे ले जाता है। दुकान का खयाल हमे दुकान मे ले जाता है। हाँलाकि इन खयालों मे एक धोखा भी छिपा है। तुम क्या ऐसी किसी जगह नहीं गये हो जिसके बारे मे खयाल तो अच्छा आया था मगर जाकर निराश होना पड़ा? ये खयाल लबादे की तरह होते हैं और इन लबादों में कोई छिपा होता है। जिस दिन हक़ीक़त तुम्हे अपनी ओर खींचती है खयालों का लबादा ग़ायब हो जाता है, फिर कोई निराशा नहीं होती। तब तुम हक़ीक़त को जस का तस देखते हो, और कुछ भी नहीं।

"वह दिन जब रहस्यों का इम्तिहान होता है"

तो, मेरे बोलने का क्या सबब है? हक़ीक़त में हमे जो खींचती है वो एक ही बात है लेकिन देखने में कई नज़र आती हैं। हमें तमाम ख़्वाहिशों ने जकड़ा हुआ है। मुझे बिरयानी चाहिये, मुझे हलवा चाहिये, खीर चाहिये, हम कहते ही रहते हैं। चीज़ों के नाम एक एक करके गिनाते हैं हम, मगर मूल में एक ही बात है; मूल में भूख है। जैसे ही हमारा पेट भरता है हम हाथ खड़े कर देते हैं-नहीं अब बस। तो कोई दर्ज़न या सैकड़ों का मामला नहीं है, एक ही चीज़ हमें खींचती है।

"और उनकी तादाद हमने सिर्फ़ इम्तिहान के लिये बनाई है"

इस जहान की बहुधा चीज़ें खुदा ने इम्तिहान के लिये बनाई हैं, क्यूंकि वो हक़ीक़त के एकलत्व को छिपाती हैं। एक कहावत है कि दरवेश एक और आदम ज़ात सौ, मतलब यह कि दरवेश का सारा ध्यान सिर्फ़ एक हक़ीक़त पर होता है जबकि आम लोग सौ शकलों में बिखरे होते हैं। पर कौन से सौ, कौन से पचास, कौन से साठ? इस दुनिया के आईनो के अक्सों में ग़ुम किसी जादुई तावी़ज़ की या पारे की मानिन्द थरथराते ये बेचेहरा लोग बिना हाथ पैरों के, बिना दिमाग़ और आत्मा के हैं। नहीं जानते कि ये कौन हैं। उन्हे पचास कहो साठ कहो या सौ; दरवेश एक है। मगर क्या यह सोच भी एक इम्तिहान नहीं है। क्योंकि सच ये है कि सौ कुछ भी नहीं जबकि दरवेश तो हज़ार है, लाख करोड़ है।

एक दफ़े एक राजा ने किसी एक सिपाही को सौ आदमियों की रसद दे दी। सेना में इसका विरोध हुआ लेकिन राजा चुप रहा। जब लड़ाई का रोज़ आया तो बाकी सब जान बचा के भागे बस एक वही सिपाही अकेला लड़ता रहा। "देखा", राजा बोला, "इसीलिये मैनें इसे सौ आदमियों की तरह खिलाया"।

इसलिये लाज़िम है कि हम अपनी सारे पूर्वाग्रह छोड़कर उसे तलाशें, जिसका भगवान से परिचय है। मगर जब हम अपना पूरा जीवन ऎसे लोगों की सोहबत में गुज़ार देते हैं जिनके अन्दर कोई विवेक ही नहीं, तो हमारा स्वयं का विवेक भी कमज़ोर पड़ जाता है, और ऎसा शख्स हमारे पास से गुज़र जाता है और हम उसे पहचान नहीं पाते।

विवेक एक ऎसा गुण है जो हमेशा आदमी के अन्दर छिपा होता है। देखते नहीं कि बावलों के हाथ पैर तो होते हैं लेकिन विवेक नहीं होता ? विवेक तुम्हारे अन्दर का सूक्ष्म सत्व है। फिर भी, दिन और रात तुम भौतिक रूप के लालन पालन में मशगूल रहते हो, जो सही और ग़लत का फ़र्क नहीं जानता। क्यों तुमने अपनी सारी ऊर्जा भौतिक की, स्थूल की देखभाल मे लगा रखी है, और सूक्ष्म को पूरी तरह से नज़र अन्दाज़ कर रखा है? स्थूल का अस्तित्त्व सूक्ष्म से है लेकिन सूक्ष्म किसी भी तौर पर स्थूल पर निर्भर नहीं है।

आँखों और कानों की खिड़कियों से जो नूर चमकता है- अगर ये खिड़कियां न भी होती, नूर तो भी होता। वो चमकने के लिये दूसरी खिड़कियां पा लेता। सूरज के आगे चराग़ करके क्या तुम कभी कहते हो," मुझे चराग़ की रोशनी में सूरज दिख रहा है"? खुदा न करे! अगर तुम चराग़ ना भी दिखाओ, सूरज फिर भी चमकेगा। फिर चराग़ की ज़रूरत क्या है?

राजाओं के साथ मेलजोल में एक खतरा है। सर कटने का नहीं- ज़िन्दगी एक रोज़ खत्म होनी ही है- आज हो कल हो फ़र्क नहीं पड़ता। खतरा इस बात से पैदा होता है कि जब राजा परदे पर आता है और उसके प्रभाव की माया ज़ोर पकड़ती है, चराग़ की तरह, तो साथ रहने वाला शख्स जो उनसे दोस्ती रख रहा है, उनसे तोहफ़े कबूल कर रहा है, निश्चित ही उनकी इच्छाओं के मुताबिक बोलने लगेगा। वो शख्स राजा के सांसारिक विचारों को ध्यान देकर सुनेगा और नकार भी ना सकेगा।

खतरा यहीं है, और ये इतना बढ़ेगा कि सच्चे स्रोत के प्रति एहतराम और धूमिल होता जायेगा। जब तुम राजा में रुचि लेने लगते हो तो वो दूसरी रुचि, जो बुनियादी है तुम्हारे लिये अजनबी होती जाती है। जितना तुम राजा के रास्ते पर चलोगे माशूक़ की गलियों का रास्ता उतना ही भूलते जाओगे। जितना सांसारिक लोगों के साथ समझौते करोगे, माशूक़ तुम से उतना ही रूठता जायेगा। उन की दिशा मे जाना तुम्हे उनकी सत्ता के मातहत करता जाता है। एक दफ़ा उन के रास्ते पर में दाखिल हो जाने से भगवान उनको तुम्हारे ऊपर अधिकार दे देता है।

दुख की बात होगी कि समन्दर तक पहुँचकर भी आदमी मटके भर मे ही संतोष कर ले। अरे समन्दर मोतियों और दूसरी न जाने कितनी बेशकीमती चीजों से भरा पड़ा है। सिर्फ़ पानी भर लेने में क्या होगा? कौन बुद्धिमान आदमी इस बात पर गर्व कर सकेगा? यह संसार उस महासागर के झाग का ज़रा सा क़तरा भर है। वह महासागर दरवेशों का विज्ञान है जिसके पानी में मोती स्वयं मौजूद है।

संसार कुछ नहीं उड़ता हुआ, बहता हुआ झाग है। सागर की अबाध गति और लहरों की आवाजाही से झाग एक सुन्दर रूप अख्तियार कर लेता है। लेकिन ये सौन्दर्य उधार का है। ऎसा खोटा सिक्का है जो आपकी आँखों को चौंधियाता है।


इन्सान खुदा के अस्तरलाब* हैं, मगर अस्तरलाब को इस्तेमाल करने के लिये खगोलविद चाहिये। कोई पर्चूनी कोई ठेलेवाला अस्तरलाब पा भी जाय, तो उस से उनका क्या भला होगा। उस अस्तरलाब से वो सितारों की गति या ग्रहों के स्थिति आदि कुछ भी ना जान सकेंगे। एक खगोलविद के हाथ में आकर ही अस्तरलाब का अस्तित्त्व सिद्ध होता है ।

जैसे ताम्बे का अस्तरलाब आकाशीय गतियों को दर्शाता है.. वैसे ही आदमी भी खुदा का अस्तरलाब है।

"हमने आदम के बच्चों को इज़्ज़त बख्शी"

वे जो खुदा के द्वारा प्रचालित हो कर हक़ीक़त को एकलता में देख पाते हैं और अपने अस्तित्त्व के अस्तरलाब के ज़रिये उसके तरीक़ो को सीख पाते हैं, ईश्वर के विधान को हर क्षण हर पल एक एक लम्हे को देखते हैं। और यक़ीन मानो ये एक ऎसा अनन्त हुस्न है जो उन के आईने से कभी नहीं हटता।

खुदा के ये खिदमतगार अपने ज्ञान, काबलियत और सलीक़े पर परदा डाले रहते हैं। खुदा से बेपनाह मुहब्बत और उसके रश्क के सबब से ये खुद को छिपाये रहते हैं, जैसा कि मुतनब्बी ने हसीनों के बाबत कहा है:

पहना रेशम जो उन्होने मगर न सजाने के लिये।
अपने हुस्न को निगाहे हवस से बचाने के लिये॥

मंगलवार, 27 फ़रवरी 2007

जादूगर

रूमी को पैदा हुये लगभग आठ सौ बरस हुए जाते हैं। तब से लेकर आज तक दुनिया में ग़ज़ल, शायरी और सूफ़ी संस्कृति के बारे मे हम जो भी देखते हैं.. उसके सीधे तार रूमी से जुड़ते हैं। हाँलाकि रूमी से पहले भी अरबी में इब्न फ़रीदी, इब्न अरबी और अल ग़ज़ाली व फ़ारसी में मन्सूर हल्लाज और फ़रीदुद्दीन अत्तार हो चुके थे, जिन्होने सूफ़ी दर्शन और काव्य की नीँव रखी। मगर अनल हक़ कह के सूली पर चढ़ने वाले मन्सूर हों या परिन्दों की महासभा की रूपात्मक दास्तान लिखने वाले अत्तार, रूमी से पहले सूफ़ी साहित्य मे दर्शन का पुट ज़्यादा था और काव्य का कम। माशूक़ से विरह और मिलन की उत्कण्ठा, जो आगे चल कर शायरी की केंद्रीय विषयवस्तु बन जाती है, रूमी में ही पूरी तरह परिपक्व हो कर मिलती है। रूमी इसीलिये महत्वपूर्ण हैं। इनको पढ़ते हुये ऐसा लग सकता है कि बड़ी सुनी सुनाई बात है, नया कुछ भी नही। वो शायद इसलिये कि तब से लेकर साठ साल पहले तक हर शायर रूमी को पढ़ कर ही जवान होता था.. फ़ारसी पढ़ने की रवायत तो पिछले साठ सालों में छूटी है नहीं तो आज भी मुहावरा क़ायम है- पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या। आज जो दबदबा अंग्रेजी का है मध्यकाल में वही फ़ारसी का था। मध्य एशिया को लेते हुये बंगाल से लेकर बग़दाद तक सरकारी कामकाज और ज्ञान विज्ञान, दोनों की भाषा फ़ारसी ही थी।


जादूगर

जादूगर तुम अनोखे हो निराले हो.।
शिकारी, शिकार को बनाने वाले हो॥


दो देखने की आदत अपनी बहुत पुरानी*।
जादू चला तुम्हारा हुई आँखें ऐंची तानी ॥


पक गये हो पूरे, शहतूत से हो मीठे।
अंगूर क्या अंगूरी, तेरे लिये सब सीठे॥

मिमियाते थे जो अब तक जम कर गरज रहे हैं।
कैसे मोगरे के तन से गुलाब जम रहे हैं॥


तन के चलने वाले जाते हैं सर झुकाये।
खामोश रहने वाले अब हैं आस्मां उठाये॥


जहालत मे क़ैद थे जो हो गये हैं ग्यानी।
संजीदा हो गये हैं जादू से आसमानी॥


जो तलवार साजते थे कल जंगे मिदान में।
अब लफ़्ज़ों के वार करते और सिर्फ़ कान में॥


जादू चला है तेरा चींटी का वक़्त आया।
खौफ़ मे हैं हाथी जो उनको सदा सताया॥


जादू न समझो इसको, ज़ुल्म से है जंग।
बदल रहे हैं देखो, तक़दीर के वो ढंग॥


लफ़्ज़ो मे मत उलझना, ताकीद है ये उनकी।
याद रहे हमेशा, बस सुनो ज़बान हक़ की॥






* यहाँ द्वैत और अद्वैत की बात है। अद्वैत को इस्लाम में तौहीद कहा जता है। नयी नयी अद्वैत की समझ आने पर हुई उथल पुथल को आँखों के भैंगेपन से जोड़ा है।

इस ग़ज़ल में रूमी, शम्स के ज़रिये मुरीदों के अन्दर हुए रासायनिक परिवर्तन का बयान कर रहे हैं कि किस तरह रूहानी इल्म होने हर चीज़ अपने मूल स्वभाव को छोड़ कर उलट व्यवहार करने लगती है। दूसरे अर्थों में जो आम तौर पर मूल स्वभाव नज़र आता है, वो नहीं है। मूल स्वभाव सारे जगत का एक ही है। ऐसी उलटबासियाँ आगे चलकर कबीर ने भी की हैं। योगशास्त्र में भी आत्मज्ञान के मार्ग पर ऐसे पड़ावों की चर्चा कुछ विद्वानों ने की है।

सोमवार, 26 फ़रवरी 2007

सुने कौन आलाप मेरे

पनाह मेरी यार मेरे, शौक की फटकार मेरे,
मालिको मौला भी हो, और हो पहरेदार मेरे।

नूह तू ही रूह तू ही, कुरंग* तू ही तीर तू ही,
आस ओ उम्मीद तू है, ग्यान के दुआर मेरे।

नूर तू है सूर तू, दौलतेमन्सूर तू,
बाजे** कोहेतूर*** तू, मार दिए ख़राश मेरे।

कतरा तू दरिया तू, गुंचा-ओ-खार तू,
शहद तू ज़हर तू, दर्द दिए हज़ार मेरे।

सूरज का घरबार तू, शुक्र का आगार तू,
आस का परसार तू, पार ले चल यार मेरे।

रोज़ तू और रोज़ा तू, मॅंगते की खैरात तू,
गगरा तू पानी तू, लब भिगो इस बार मेरे।

दाना तू ओ जाल तू, शराब तू ओ जाम तू,
अनगढ़ तू तैयार तू, ऐब दे सुधार मेरे।

न होते बेखुदी में हम, दिल में दर्द होते कम,
राह अपनी चल पड़े तुम, सुने कौन आलाप मेरे।








*कुरंग - हिरन।
**सूफ़ी परम्परा में पहुँचे हुए फ़कीर को बाज या परिन्दे की उपमा देने का चलन है।
***कोहेतूर उस पर्वत का नाम है जिस पर मूसा को खुदाई नूर के दर्शन हुए थे।

बाजेकोहेतूर से रूमी का इशारा यहाँ शम्स से है..जो उनकी समझ में खुदाई नूर के दर्शन मनमर्जी से कर लेते हैं। खराश मार देने की बात यहाँ कुछ अटपटी लगती है पर शायद रूमी कहना चाहते हैं कि शम्स की तेज़ तर्रार हस्ती के आगे उनका रूहानी तन अनगढ़ और नाज़ुक है, इसी लिये उनके सम्पर्क में खराश लग गई।

कहाँ से आया सूफ़ी

रूमी फ़ारसी ज़बान मे लिखते थे मगर रहते तुर्की मे थे, जिसे उस दौर मे रूम कहा जाता था. इसलिये बाकी दुनिया के लिये उनका नाम रूमी पड़ गया, हालाँकि तुर्की मे उन्हे मौलाना के नाम से पहचाना जाता है. इसी तरह शम्सुद्दीन तबरेज़ी इरान के शहर तबरेज़ के रहने वाले थे. शायरों मे ये परम्परा हाल तक क़ायम रही...जिगर मुरादाबादी, साहिर लुधियानवी वगैरह.

तो रूमी और तबरेज़ी की बात तो साफ़ हो गई..अब ये सूफ़ी कहाँ से आया है?

माना यह जाता है कि सूफ़ी अरबी के शब्द सूफ़ से उपजा है जिसके मायने होता है ऊन. चूँकि बहुतेरे फ़कीर ऊन के चोगे पहन के घूमा करते थे इसलिये ये मान्यता चली, मगर कुछ फ़कीर ऊन के चोगे नहीं भी पहनते थे. तो दूसरी मान्यता यह हुई कि सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति अरबी के एक और शब्द सफ़ा से है..जिसके मायने उजला या पवित्र है. गौर तलब है कि आजकल की हमारी आम बोलचाल का शब्द सफ़ाई भी इसी सफ़ा से आ रहा है. तो चूँकि फ़कीर लोग दिल के साफ़ और ईमान के उजले होते हैं तो वो सूफ़ी कहलाये.

एक और मान्यता के अनुसार सूफ़ी शब्द की जड़ अशब अल सुफ़्फ़ा में है. अशब अल सुफ़्फ़ा भी अरबी शब्द है और इसका मायने बरामदे के साथी होता है. ये नाम इस्लामिक इतिहास मे उन लोगो को दिया गया था जो अपना ज़्यादातर वक़्त मुहम्मद साहिब की मस्जिद के बरामदे मे रहते हुये इबादत में ही गुज़ारते थे. उन्ही के पीछे उनके जैसी भक्ति वाले दूसरे फ़कीरों को सूफ़ी नाम दे दिया गया.

एक व्याख्या अल बेरुनी की भी है जिसने सूफ़ी शब्द को ग्रीक भाषा के सोफ़िया से जोड़ा है, जिसका अर्थ होता है ज्ञान. और सुकरात के चेलों को इसी कारण सोफ़िस्ट कहा जाता था.. कालान्तर में इसी सोफ़िया से अन्ग्रेज़ी में सोफ़िस्ट्री और सोफ़ेस्टिकेटेड जैसे शब्द बने. सूफ़ी शब्द की ये व्याख्या बहुत मान्य नहीं है.. मगर क्या पता?.. जैसे मनुष्य की जड़े एक हैं, वैसे ही उसकी भाषाओं की जड़े भी तो एक हैं.

रविवार, 25 फ़रवरी 2007

कौन हैं रूमी

मौलाना जलालुद्दीन रूमी का जनम ३० सितम्बर १२०७ में ताजिकिस्तान के वख्श नामक स्थान में हुआ था। परिवार मे पहले से ही धार्मिक दार्शनिक संस्कार मौजूद थे। बचपन में ही रूमी को मंगोलो के द्वारा की जाने वाली तबाही से बचने के लिये परिवार समेत भाग कर तब के अनातोलिया और आज के तुर्की के कोन्या मे शरण लेनी पड़ी। २४ की उमर थी जब वालिद साहब का इन्तक़ाल हो गया और आप खुद मौलाना की गद्दी पर आसीन हुये। दीन की महीन और गहरी समझ के चलते आप की शोहरत सब ओर फैल गई।

शम्सुद्दीन तबरेज़ी नाम के एक घुमन्तु दरवेश ने रूमी के ऊपर ऐसा असर छोड़ा, ऐसा रासायनिक परिवर्तन किया कि ये दुनियादारी छोड़ के सूफ़ी हो गये। दुनिया इन्होने ज़रूर छोड़ दी पर दीन नहीं छोड़ा बहुत हाल तक क़ुरान को अरबी मे ही पढ़ने की रवायत थी.. तो कहा जाता है कि जो लोग किन्ही वजहों से अरबी नहीं सीख सकते थे.. तो उन्हे मौलाना रचित मसनवी पढ़ने की सलाह दी जाती थी और मसनवी को फ़ारसी की क़ुरान माना जाता था। मसनवी मे महापुरुषों के संस्मरणों व अन्य रूपकों के ज़रिये ईश्वर और आस्था के मसलों पर विवेचन है। मसनवी के अलावा दूसरी महत्वपूर्ण रचना है - दीवान-ए-शम्स तबरेज़ी। इस पूरे दीवान मे एक दफ़े भी आपको रूमी का नाम पढ़ने को नहीं मिलेगा। मक़ते में शायर के नाम के स्थान पर शम्स का ही नाम आता है..जिनके विरह मे और शौक़ में ये सारी ग़ज़लें उनसे हो कर बहीं। एक तीसरी रचना भी है- फ़ीही मा फ़ीही - जो रूमी के शिष्यों के साथ उनका आध्यात्मिक वार्तालाप है।

१७ दिसम्बर १२७३ को आपने पार्थिव शरीर छोड़ दिया।
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मज़हब के दायरे होते हैं... पर आस्था सार्वभौमिक है... रूमी को इसी नज़र से देखने की विनती है मेरी।

मैकदे में आज

नशे मे बेपरवाह हम मैकदे में आज
तस्लीम की सूली मे सर न देंगे आज

क्या बोलूं क्या मस्ती है क्या मय है आज
क्या साक़ी क्या मेहरबानी क्या लुत्फ आज

ना हिजर ना बू है पलायन की आज
दिलदार से पाक मुलाकात जो है आज

है राग-ओ-रंग साक़ी के साथ आज
प्याले हैं शराबे हैं बस जश्न ही है आज

मस्ती मे कैसे होती सुब्ह से शाम आज
हिसाब ज़मानों से चुकता हो रहे हैं आज

आग के बल्वे में मश्गूल हम हैं आज
हंगामे के बीच सच्चो की मजलिस है आज

खुद को जलाकर पूछते हैं हरेक मय से
मेरे साकी के सिवा देखा कोई करिश्मासाज

शम्सउल तबरेज़ ने की न कोई ख़ुराफ़ात
अद्वैत की मय ढाल सब को बुलाया दे आवाज

पहली ग़ज़ल

लगभग डेढ़ बरस पहले बेरोज़ग़ारी के दिनो में एक रोज़ कहीं रूमी की किसी ग़ज़ल का घटिया हिन्दी अनुवाद पढ़ के बड़ी कोफ़्त हुई.. लगा कि इस से बेहतर अनुवाद तो मैं कर सकता हूँ..तो लग गया..रूमी के मूल फ़ारसी के अंग्रेज़ी अनुवाद से मैंने हिन्दी में कुछ ग़ज़लें तरजुमा कीं.. तक़लीफ़ होती थी..क्योंकि अंग्रेज़ी और फ़ारसी के संसार मे बड़ी दूरियां हैं..तो सोचा कि सीधे फ़ारसी से क्यों ना अनुवाद करूं...तो भई मैंने फ़ारसी सीखने का संकल्प कर लिया..इंटरनेट के ज़रिये और किताबों की मदद से तीन महीनों तक सीखता रहा.. और साथ साथ अनुवाद पर भी हाथ आज़माईश करता रहा..सहूलियत के लिये निकोलसन के अंग्रेज़ी अनुवाद और मूल फ़ारसी को मिलाता रहता था.. फिर कुछ काम मिल गया और उसमें मशग़ूल हो जाने के बाद फ़ारसी के संसार मे लौट नहीं सका। कोशिश बचकाना थी..जानता हूँ.. मगर ब्लॉग पर इसलिये डाल रहा हूँ कि हो सकता है कि कुछ अपने अनुवाद के घटियापे पर गालियां खाके खोया उत्साह वापस लौट आये।




एक सफर पर मैं रहा मेरे बग़ैर
उस जगह दिल खुश हुआ मेरे बग़ैर

देख पाया नहीं ये चाँद वो जो
रूख-ब-रूख होना मेरा मेरे बग़ैर

जो ग़मे यार में दे दी जान हमने
हो गया पैदा फिर ग़म मेरा मेरे बग़ैर

मस्ती में पहुँचा हमेशा बग़ैर मय के
खुशहाली में पहुँचा हमेशा मेरे बग़ैर

मेरी यादों का मकां ना हरगिज़ बना
याद रखता हूँ मैं खुद को मेरे बग़ैर

मेरे बग़ैर खुश हूँ मैं कहता खुद से
कि अय मैं..रहो हमेशा मेरे बग़ैर

मेरे सामने रास्ते बन्द सब थे
मिल गई खुली राह एक मेरे बग़ैर

मेरे साथ दिल बन्दा है सुल्तान का
बन्दा है वो सुल्तान भी मेरे बगैर

मस्त शम्से तबरीज़ के जाम से हुआ
उसका जामेमय रहता नही मेरे बग़ैर